Sone ka Anannas
₹70.00
सुब्रत थोड़ा सोचकर बोले, “वह कविता जरा लम्बी थी, मुझे उसका शुरुआती और अन्तिम हिस्सा ही याद है- बाकी याद नहीं रहा।”
“जो याद है, वही सुनाईए।”
सुब्रत बोले, “कविता की शुरुआत की पंक्तियाँ हैं- ‘देखकर दर्पण में मुख अपना / गुनगुना रहा है बूढ़ा वट / सिर पर लिये वकों का बसेरा / धरती छू रही मोटी जट।’
“बोलिए जयन्तबाबू, इसका कोई मायने निकलता है? एक बूढ़ा बरगद आईने में अपना चेहरा देखकर गाना गा रहा है! हँसी नहीं आ रही है ऐसी बेतुकी बात सुनकर?”
सिर झुकाकर सोचते हुए ही जयन्त ने कहा, “मुझे जरा भी हँसी नहीं आ रही है सुब्रतबाबू! कविता के अन्तिम हिस्से में क्या है?”
सुब्रत बोले, “अन्तिम हिस्से में है- ‘वहीं कहीं पर जल के ऊपर / छाया-प्रकाश का आना-जाना / सर्पनृप का दर्प तोड़कर / विष्णुप्रिया ने गढ़ा ठिकाना।’
“क्यों जयन्तबाबू, यह सब पागल का प्रलाप नहीं है?”
जयन्त प्रायः पाँच मिनटों तक स्थिर बैठा रहा। इसके बाद अचानक कुर्सी पर तनकर बैठते हुए बोला, “कविता के बीच वाले हिस्से का कुछ भी आपको याद नहीं है?”
“ऐसी बकवास कविता की पंक्तियों को कौन भला याद रखने की कोशिश करेगा जयन्तबाबू? चोर लोग भी भोले हैं! बताईए, लोहे का सन्दूक खोलकर कविता का वह कागज लेकर भागे हैं वे!”
जयन्त ने कहा, “चोर ज्यादा भोले हैं या आप- यह मैं अभी नहीं समझ पा रहा हूँ, लेकिन कविता के कुछ-कुछ अर्थ का अनुमान मैं लगा पा रहा हूँ।”
Read/Download Free Preview
Buy ‘Print Book’ (External Link)
Reviews
There are no reviews yet.