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दिगम्बर जेठू की आत्मकथा- ‘मेरी जीवनयात्रा’

जिन लोगों को लिखने का थोड़ा-सा भी शौक है, वे अगर अपने जीवन के उत्तरार्ध में भूली-बिसरी बातों को याद कर डायरी में लिखा करें, तो यह एक रोचक आत्मकथा बन सकती है।

बचपन में मैंने अपने मँझले नानाजी से यह अनुरोध किया था, क्योंकि मुझे पता चला था कि वे कभी कविताएं लिखते थे। कुछ कविताएं उन्होंने मुझे दिखायी थीं, जिनमें से एक देश के प्रथम आम चुनाव पर लिखी हुई थी। खैर, उन्होंने कोई डायरी नहीं लिखी।

बाद में पिताजी के दो मित्रों से (दोनों ने सरकारी सेवाओं से अवसर ग्रहण कर रखा था और अपनी युवावस्था में साहित्यिक गतिविधियों में थोड़ी-बहुत रुचि रखते थे) भी मैंने ऐसा अनुरोध किया था, जिनमें से एक दिगम्बर जेठू ने- बेशक, बहुत देर करके- बीते दिनों की बातों को याद करके लिखना शुरू किया। आश्चर्यजन रूप से, मात्र पाँच महीनों में ही उन्होंने अच्छी-खासी रोचक आत्मकथा लिख डाली! वे चाहते, तो हिन्दी या अँग्रेजी में भी लिख सकते थे, लेकिन बँगला में उनका भाषा-प्रवाह बेहतर होना था, इसलिए उन्होंने बँगला में ही लिखा और मुझसे कहा कि बाद में मैं इसे हिन्दी में लिख दूँ। यह 2020 की बात है।

चूँकि मैं बँगला टाईप करना नहीं जानता था, अतः उनकी पाण्डुलिपि को मालदा (पश्चिम बँगाल का शहर, जो झारखण्ड में स्थित हमारे कस्बे से सवा सौ किमी दूर है) भेजवाया गया। वहाँ से उनकी बँगला आत्मकथा (“आमार यात्रापथ”) अप्रैल 2021 में छपकर आयी- पहले हफ्ते के किसी दिन। उन दिनों वे अस्वस्थ चल रहे थे। 9 अप्रैल को उन्हें बेहतर चिकित्सा के लिए मालदा ले जाना तय हुआ, इसलिए 8 की शाम उन्होंने मुझे फोन किया। मैं उस दिन एक पड़ोसी कस्बे में गया हुआ था, जहाँ मेरे फोन की बैटरी समाप्त हो गयी थी। रात 9 बजे करीब घर आकर जब मैंने फोन को चार्ज पर लगाया, तब पता चला कि उनकी 16 मिस्ड कॉल थीं! मैं भागा-भागा उनके घर पहुँचा। उन्होंने बँगला आत्मकथा की एक प्रति मुझे दी और इसका हिन्दी अनुवाद करने की जिम्मेवारी मुझे सौंपी।

अगले दिन बेहतर चिकित्सा के लिए उन्हें मालदा ले जाया गया, वहाँ से कोलकाता रेफर कर दिया गया और 24 अप्रैल के दिन वे सदा के लिए हम लोगों को छोड़ गये।

अपनी आत्मकथा का हिन्दी अनुवाद वे नहीं देख पाये। इस बात का मलाल मुझे हमेशा रहेगा। खैर, पिताजी के एक अन्य मित्र काली काकू ने मेरे अनुवाद को पढ़ा और मन्तव्य किया कि दिगम्बर हिन्दी में लिखता, तो ऐसा ही लिखता। मुझे सन्तोष हुआ।

उसी हिन्दी आत्मकथा (“मेरी जीवनयात्रा”) के eBook संस्करण को जगप्रभा पर उपलब्ध किया जा रहा है।

विशेष: आत्मकथा के आवरण के लिए दिगम्बर जेठू ने एक दृश्य की कल्पना की थी, मैंने उस कल्पना के आधार पर एक स्केच बनाया था और फिर हमारे कस्बे के एक चित्रकार- जो अब कोलकाता में रहते हैं- प्रशान्त चौधरी ने उस स्केच के आधार पर जलरंग से एक सुन्दर कलाकृति बना दी। हालाँकि पुस्तक के मुद्रित संस्करण पर जेठू के एक नाती द्वारा बनायी गयी कलाकृति को स्थान दिया गया है, उसने भी उसी स्केच के आधार पर जलरंग बनाया था।  

(जेठू- ताऊजी, काकू- चाचाजी)

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